तेहरवी शताब्दी में मुगल-आक्रमण के समय भयानक हिंसा, लुट, आतंक व अराजकता फैल गयी थी राजपुताने से चौहानो की शक्ति नष्ट हो गर्इ थी उस समय कुछ भाँतु समुह पश्चिम की ओर भाग गये कुछ उत्तरी भारत की ओर पलायन कर गये लगभग दो शताब्दीयो तक पश्चिम की ओर भ्रमण करते हुए सिंध व पंजाब में जीवन-यापन करने लगे और कालान्तर में वही बस गये तथा रिति-रिवाज भाषा में पंजाबी का प्रभाव आ गया कुछ हिन्दु भाँतुओ ने सिख धर्म अपना लिया पंजाब में भाँतु समुह की साँसी जाति बहुतायत में बस गयी इन्ही में महान् शेरे पंजाब ‘महाराजा-रणजीत सिंह’ हुए। इनमें से कुछ भाँतु समुह दिल्ली, उत्तरी भारत आ गये। मुगल-काल में उत्तरी भारत की ओर जाने वाले भाँतु समुह पूर्व की चले गये व वापस उत्तरी भारत आ गये जो उत्तरी व मध्य भारत में खानाबदोश जीवन यापन करने लगे भरण-पो”ाण के लिए शिकार करने लगे जो उनके राजपुती खुन में सहज काम था व जीवन यापन के लिए छोटे अपराध लुट किया करते थे यद्यपि इतिहास में कर्इ क्षेत्रीय समूह मुगल व तुर्को को लुटा करते थे जिनका उल्लेख इतिहास में भरा-पड़ा है। कुछ भाँतु समुह पुन: राजपुताने में आ गये जो वर्तमान राजस्थान है ये भाँतु राजपुत विभिन्न घटनाओ के कारण गुजर, जाटो के भाटो का काम करने लगे तो कुछ नाच-गाना, खेल-तमाशा, नट आदि का कार्य करने जो उस समय भरण-पो”ाण के लिए जरूरी था। कुछ भाँतु समुह दक्षिण भारत चले गये जिन क्षेत्रो में अधिक समय घुमन्तु रहे वहाँ की भा”ाा व संस्कृति का असर आने लगा|
तेहरवी शताब्दी के बाद वर्तमान राजस्थान में मुगल-आक्रमण के समय भयानक हिंसा, लुट व अराजकता फैल गयी थी उसी समय वीर भाटी राजपुत पराजय व दुर्दशा का शिकार होकर दल-बल परिवार सहित कई समुह में वीर भूमि राजपुताना छोडकर पश्चिम की ओर पलायन कर गये कुछ सिंध पार चले गये। कुछ समुह वापस पंजाब की ओर मुड गये। पंजाब में कई समुह, सम्प्रदाय में बंटते गये, घुलते गये, भ्रमणकारी जीवन जीते हुए खानाबदोश हो गये व सम्पूर्ण उत्तरी भारत मे फैल गये फिर कुछ समूह वापस दो शताब्दियों के बाद घुमक्कड़ जीवन जीते हुए राजस्थान आकर खानाबदोश जीवन जीने लगे कुछ पूर्वी भारत चले गये, फिर कुछ समुह राजस्थान से वापस उत्तरी भारत चले गये। व कुछ खानाबदोश राजपुत छोटे अपराध भी करते थे। केवल अपने भरण-पोषण के लिए। ये राजपुत खानाबदोश समाज की मुख्य धारा से दुर गाँव, शहरों से अलग डेरे डालकर जीवन जीते। परन्तु अपनी मारवाड़ी बोली छोड ना सके, जिन क्षेत्रों में अधिक समय घुमन्तु रहे वहाँ की भाषा का असर भी आने लगा इसीलिए इन राजपुत खानाबदोशों की भाषा में मारवाडी व पंजाबी मिश्रण है। ये राजपुत खानाबदोश अपने रूढीवादी रीति-रिवाज भी कट्टरता से अपनाते थे। चुंकि ये सभी बिखरे हुए राजपुत खानाबदोश समुहों के पूर्वज राजपुताने के वीर भाटी राजपुत थे। विभिन्न परिस्थितियों के कारण ये वीर-भाटी अपने आप को भातु नाम सम्बोधित करते थे। (जिनका विस्तृत विवरण प्रमाण के साथ, रमन भातु लिखित पुस्तक ‘भाँतु समाज का इतिहास’ में दिया गया है।) परिस्थितियों के कारण ये राजपुत खानाबदोश अनेक समुह में बँटते चले गये फिर ये समुह अनेक जाँतियों में बँटते गये जिसका स्वरूप आज हमारे सामने विधमान हैं ‘समाज एक-जाति अनेक’ अंग्रेजी राज में खानाबदोश राजपुतों को उनकी मजबूरी ना समझते हुए काला-कानून लगाकर अपराधी घोषीत कर दिया। ये राजपुत खानाबदोश जंगलों में विचरण करते थे। इसलिए अन्य समाज के लोगों ने इन्हें जगल में विचरण करने वाले ‘कन-कचार’ अर्थात कंजर कहना शुरू कर दिया चुंकि ये भाँतु-राजपुत, देश की मुख्य धारा से दुर जंगली जीवन जीते थे इसलिए ये समाज के लोगों को बता नहीं सके कि हम किस क्षत्रीय समुह से सम्बन्धित है। कुछ भाँतु राजपुतों के समुहों ने जाट, गुर्जर व तत्कालीन राजाओं के यहाँ भरण-पोषण के लिए मजबूरी वश नाच-गाना, भाटो का कार्य भी करने लगे थे। इसलिए महाराष्ट्र में इन्हें अंग्रेजों ने कंजर-भाट के नाम से सेंटलमेन्टो में बन्दी बनाया और जबलपुर व बिहार में कंजर के नाम से बंदी बनाया जो आज तक यही नाम उत्तर-प्रदेश चलता आ रहा है जबकि ये ना तो कंजर है ना ही भाट जाति है बल्कि भाँतु राजपुत के साँसी भाँतु समुह से सम्बन्धित है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात के कंजर-भाँतु भी कंजर नहीं है बल्कि भाँतु राजपुतों के भाँतु लोग है जिन्हें सोलहवी सदीं के समय जंगलों व मुख्य धारा से दूर खाना बदोश जीवन-यापन के कारण देश के अन्य समाज के लोग (काजा या कज्जा) इन्हें कंजर कहने लगे व अंग्रेजों ने इन्हें इसी नाम से दर्ज कर दिया।
कंजर कौन है :-
वास्तव में इतिहास में कंजर नाम की कोई जाति है ही नहीं केवल मात्र सम्बोधन है जैसे व्यापारियों को बनिया कहा जाता है। जबकि बनिया शब्द किसी जाति का नाम नहीं है बल्कि वणिक लोग जो व्यापार कार्य करते है चाहे किसी समुह या जाति के हो, ओसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी, जैन आदि।
उसी प्रकार भारत में चार जातियों को कंजर नाम से जाना जाता है जबकि ये चारो जातियाँ अपने आप में कंजर नहीं है ना मानती है।
- भाँतु
- कुचबन्धिये या धियारे
- जल्लाद
- बेलदार
Source: BHANTUSAMAJ
Great Post!
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